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काल का स्वरूप
आधुनिक वैज्ञानिक युग में 'काल' अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। इसके सम्बन्ध में अनेकविध शोध हुए हैं। प्राचीन काल में भी 'काल' को लेकर गहन विचार हुआ है। काल को समस्त कार्यों का कारण मानने वाला एक सिद्धान्त रहा- कालवाद। भारतीय वाङ्मय में इसकी विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा आदि भारतीय दर्शनों में भी काल का अस्तित्त्व स्वीकार करते हुए उसकी सिद्धि में अनेक हेतु दिए गए हैं तथा उसके स्वरूप को लेकर भी पर्याप्त ऊहापोह हुआ है। जैनदर्शन में भी काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य स्वीकार किया गया है तथा उसके स्वरूप एवं गणना पर गहन विचार किया गया है। जैनदर्शन में 'समय' को काल की इकाई माना गया है तथा अनन्त काल की गणना के लिए भी पल्योपम, सागरोपम, पुद्गल परावर्तन आदि उपमापरक शब्दों का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत आलेख में भारतीय परम्परा एवं उसके दर्शन-ग्रन्थों के आधार पर काल का संक्षेप में विचार करते हुए जैनदर्शन के अनुसार काल का निरूपण किया गया है।
भारतीय परम्परा में काल
भारतीय परम्परा में काल गहन चिन्तन का विषय रहा है। विभिन्न प्राचीन भारतीय दार्शनिक सिद्धान्तों में एक कालवाद नामक सिद्धान्त भी मान्य रहा है, जिसका मन्तव्य है कि जो कोई भी कार्य घटित होता है, उसमें काल ही प्रमुख कारण होता है। कालवाद की इस मान्यता का प्रतिपादक एक प्रसिद्ध श्लोक है
काल: पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः।' अर्थात् काल ही पृथ्वी आदि भूतों का परिणमन करता है, काल ही प्रजा यानी जीवों को पूर्व पर्याय से प्रच्यवित कर अन्य पर्याय में स्थापित करता है। काल ही जीवों के सो जाने पर जागता है । काल की कारणता का अपाकरण नहीं हो सकता। काल को परमात्मा के रूप में भी स्वीकार किया गया है। अथर्ववेद, नारायणोपनिषद्, शिवपुराण, भगवद्गीता आदि ग्रन्थ इसके साक्षी हैं । अथर्ववेद के 19 वें काण्ड के 53-54 वें सूक्त में काल का विवेचन हुआ है। वहाँ काल की महिमा