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ज्ञानसार
करने के लिये जीवात्मा को निरन्तर प्रयास करना चाहिए । एक बार तुम्हें सफलता मिल गयी तो समझ लो कि पूर्णानन्द में निरन्तर वृद्धि होते देर नहीं लगेगी।
ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म, तद्वक्त नैव शक्यते ।
नोपमेयं प्रियाश्लेषैर्नापि तच्चन्दनद्रवः ॥६॥१४॥ अर्थ : ज्ञान-सरोवर में आकंठ डूबी जीवात्मा को जो अपूर्व सुख और असीम
शान्ति मिलती है, उसका वर्णन शब्दों में अथवा लिखकर नहीं किया जा सकता। ठीक इसी तरह उसकी तुलना नारी के आलिंगन से
प्राप्त सुख के साथ अथवा चन्दन-विलेपन के साथ नहीं कर सकते । विवेचन : आकाश की भी कोई उपमा हो सकती है क्या ? अथाह समुद्र को भला कोई उपमा दी जा सकती है क्या ? समस्त सृष्टि और समष्टि में जो एकमेव, अद्वितीय है, उसे महाकवि, मनीषी भी कोई उपमा देने में सर्वथा असमर्थ होते हैं । ज्ञान-मग्नता से उपजा सुख भी ऐसा ही एकमेव और अद्वितीय है ।
यदि तुम यह प्रश्न करो की, "ज्ञान-मग्न जीवात्मा को भला कैसा सुख मिलता है ?" तो इसका हम सही शब्दों में उत्तर नहीं दे सकेंगे, ना ही कोई निश्चित उपमा दे पायेंगे ! - "क्या यह सुख रूपयौवना के मादक आलिंगन से प्राप्त सुख
जैसा है ?"
"नहीं, कदापि नहीं ।" ----- "क्या यह चन्दन-विलेपन से मिलते सुख जैसा है ?"
"वह भी नहीं !" - "तब भला कैसा है ?"
उसको समझाने के लिए संसार में कोई उपमा नहीं मिलती ! बल्कि उसे समझाने के लिये, सिवाय उसका खुद अनुभव किये, दूसरा कोई उपाय नहीं है । बाह्य पदार्थों से प्राप्त समस्त सुखों में अद्वितीय, एकदम विलक्षण, जिसका जिंदगी में कभी कहीं कोई अनुभव नहीं किया हो, ऐसे ज्ञान-मग्नता के अपूर्व सुख का यदि एक बार भी स्वाद चख लिया, तब निःसन्देह बार-बार उसका अनुभव करने/'टेस्ट' करने के लिए स्वभाव दशा, गुणसष्टि और आत्मस्वरूप की और दौड़े चले आओगे।
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