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(१७) अजितनाथसों मन लावो रे॥टेक ॥ करसों ताल वचन मुख भाषौ, अर्थमें चित्त लगावो रे। अजित.॥ ज्ञान दरस सुख बल गुनधारी, अनन्त चतुष्टय घ्यावो रे। अवगाहना अबाध अमूरत, अगुरु अलघु बतलावो रे। अजित.॥१॥ करुनासागर गुनरतनागर, जोतिउजागर भावो रे। त्रिभुवननायक भवभयघायक, आनंददायक गायो रे। अजित.।।२।। परमनिरंजन पातकभंजन, भविरंजन ठहरायो रे । 'द्यानत' जैसा साहिब सेवो, तैसी पदवी पावो रे॥ अजित. ॥३॥
हे भव्य जीव ! भगवान अजितनाथ के गुण-चितंन में, उनके दर्शन में अपना मन लगावो। मुख से उनका गुणगान करते हुए, हाथ से ताल लगाते हुए अपने अन्तःकरण में गुणगान की शब्दावली के अर्थ का अनुभव करो। ___ अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख व अनन्त बल के धारी अरहन्त देव के स्वरूप का ध्यान करो। उनकी अवगाहना अबाधित है, अमूर्तिक है, अगुरु व अलधु है।
वे गुणों की खान हैं । दया करुणा के सागर हैं, ज्योतिस्वरूप हैं, उनका ध्यान करो, उनका चिन्तन करो। वे तीन लोक के नायक हैं । जन्म-मरण के अर्थात् भव के भय का नाश करनेवाले हैं। सबको आनन्द देनेवाले हैं, उनका गुणगान करो।
सर्वदोषरहित, पापों का नाश करनेवाले, भव्य जीवों के मन को प्रमुदित करनेवाले को अपने हृदय-कमल पर आसीन करो, स्थिर करो । द्यानतराय कहते हैं कि जैसे देव का, जिस रूप का, जैसे गुणों का तुम ध्यान/चिन्तन करोगे, तुम भी वैसे ही हो जाओगे अर्थात् वैसा ही पद प्राप्त करोगे।
धानत भजन सौरभ