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(५१) हां चल री! सखी जहाँ आप बिराजत, नेमि नवल व्रतधारी री! | टेक॥ जाय कहैं प्रभुसों विनती करि, लिहि. औगुन मुशिमारी श्री. १. . . रजमति कहत्त बात मैं जानी, करी मुकतसों यारी री! 'द्यानत' ता वनिताके ऊपर, तन मन वारौं डारी री!॥२॥
हे मेरी सखी ! मुझे वहाँ ले चल जहाँ मेरे स्वामी नेमिनाथ नवीन दीक्षा लेकर व्रत्तों को धारण किए हुए विराज रहे हैं। अर्थात् नवदीक्षित नेमिनाथ जहाँ व्रतसहित विराजमान हैं।
हम जाकर वहाँ प्रभु से विनती करें कि मेरे जो भी कुछ अवगुण थे उन्हें आप भुला दें, क्षमा करें।
राजुल कहती है कि मैं तो इतना ही जानती हूँ कि आपने मुक्ति प्रिया से प्रेम किया है। द्यानतराय कहते हैं कि उस मुक्तिरूपी नारी के ऊपर हम भी तन-मन न्यौछावर करते हैं।
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घानत भजन सौरभ