________________
(३१७)
राग गौरी कहैं भरतजी सुन हो राम! राज भोगसों मोहि न काम ।। टेक॥ तब मैं पिता साथ मन किया, तात मात तुम करन न दिया ॥१॥ अब लौं बरस वृथा सम गये, मनके चिन्ते काज न भये ॥२॥ चिन्तै थे कब दीक्षा बनै, धनि तुम आये करने मनै ॥३॥ आप कहा था सब मैं करा, पिता करेकौं अब मन धरा॥४॥ यों कहि दृढ़ वैराग्य प्रधान, उठ्यो भरत ज्यों भरत सुजान ।। ५॥ दीक्षा लई सहस नृप साथ, करी पहुपवरषा सुरनाथ ।।६।। तप कर मुकत भयो वर वीर, 'द्यानत' सेवक सुखकर धीर॥७॥
दशस्य- पुत्र भारत अपने बड़े भाई श्रीसन से कहते हैं कि हे भाई! मुझं इस राज के भोगने से कोई वास्ता नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है।
पहले भी जब पिता ने और मैंने एक साथ संन्यास धारण करने का मन बना लिया था तब पिताजी ने, आपने व माँ ने संन्यास धारण नहीं करने दिया।
अब तक की बीती उम्र सब वृथा गई, जो मन में विचार किया उसे पूर्ण नहीं कर सके । सोचते थे कि कब दीक्षा की साध पूरी हो तो तुम उसे मना करने आ गए हो।
आपने जो कहा था कि संन्यास धारण न करके राज्य करो, वह ही मैंने सब किया। अब मैंने पिताजी ने जो किया वह करने का अर्थात् संन्यास धारण करने का मन बनाया है । इस प्रकार यह कहते हुए वैराग्य में दृढ़ होकर भरत उठ खड़े हुए।
अनेक राजाओं के साथ उन्होंने दीक्षा ग्रहण की, उस समय इन्द्र ने उन पर पुष्पवृष्टि की थी। ___ तपस्या करके वे श्रेष्ठ वीर भरत मुक्त हुए, मोक्षगामी हुए। धानतराय कहते हैं कि ऐसे धैर्यवान भरत के सेवक होना सुखकारी है।
छानत भजन सौरभ
३६७