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(३२७) आरती निश्चयआत्मा की
चौपाई
मंगल आरती आतमराम। तनमंदिर मन उत्तम ठान ।। टेक ॥ समरसजलचंदन आनंद। तंदुल तत्त्वस्वरूप अमंद ॥१॥ समयसारफूलन की माल। अनुभव-सुख नेवज भरि थाल ॥ २ ॥ दीपकज्ञान ध्यानकी धूप। निरमलभाव महाफलरूप॥३॥ सुगुण भविकजन इकरँगलीन। निहचै नवधा भक्ति प्रवीन॥४॥ धुनि उतसाह सु अनहद गान। परम समाधिनिरत परधान ॥५॥ बाहिज आतमभाव बहावै। अंतर है परमातम ध्यावै ।। ६ ॥ साहब सेवकभेद मिटाय। 'द्यानत' एकमेक हो जाय ॥ ७॥
शुद्ध आत्मा की, निज आत्मा की आरती मंगलकारी है/मंगलदायी है।
(इस तन में ) आत्मा के निवास करने के कारण यह तन एक मंदिर के समान (पूज्य है पवित्र) है, और मन उसके ठहरने का स्थान है।
उसको (आत्मा की) पूजा के लिए समतारूपी भावना ही आनन्दकारी जल व चन्दन है। उसका तात्विक स्वरूप ही कभी भी मन्द न होनेवाला अक्षत/तन्दुल
है
___आत्मगुणों में रति ही उसकी पूजा के लिए पुष्पों की माल है और आत्मगुणों के अनुभव से उत्पन्न सुख ही नैवेद्य भरे थाल हैं।
उसकी पूजा के लिए ज्ञान ही दीपक है और मन-वचन-काय की एकाग्रतारूप ध्यान ही धूप है। भावों का निर्मल हो जाना ही उसकी पूजा का परिणाम है फल है।
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द्यानत भजन सौरभ