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(९३) कर रै! कर रे! कर रे!, तू आतम हित कर रे। टेक।। काल अनन्त गयो जग भमतें, भव भवके दुख हर रे। कर रे.॥ लाख कोटि भव तपस्या करते, जितो कर्म तेरो जर रे। स्वास महामनाहि ल. दास, अन् अनुमा जित दर रे॥ कर रे.॥१॥ काहे कष्ट सहै बन माहीं, राग दोष परिहर रे। काज होय समभाव बिना नहिं, भावौ पचि पचि मर रे॥ कर रे.॥२॥ लाख सीखकी सीख एक यह, आतम निज, पर पर रे। कोट ग्रंथको सार यही है, 'द्यानत' लख भव तर रे॥ कर रे.॥३॥
हे प्राणी! अनन्त काल इस संसार-महावन में भटकते हुए व्यतीत हो गया। अब तो इन भव-भवान्तरों के दुःख का हरण कर मुक्त कर दे। तू अपनी आत्मा का हित-भला कर रे।
लाखों भव तक तपस्या करके भी इस कर्मरूपी रोग का नाश करो, उसे जीतो। जिस क्षण भी तुम अपने अनुभव में आजाओगे, उसी श्वासोश्वास में, उसी क्षण में कर्म नष्ट हो जायेंगे। __ किस कारण से किसलिए तू वन में जाकर कष्ट सहन करता है? तू मात्र राग-द्वेष को छोड़ दे। समता भाव के बिना कुछ भी नहीं होगा। उसके बिना तू चाहे कितना ही मरता-पचता रह ।
लाख बात की एक बात यह है कि यह अनुभव कर कि मैं आत्मा हूँ और सब पर हैं। यह भेदज्ञान ही करोड़ों ग्रन्थों का सार है। द्यानतराय कहते हैं कि तू इतना-सा समझकर भव से पार हो ले।
द्यानत भजन सौरभ
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