________________
(२३९) जैनधरम धर जीयरा! सो चार प्रकार॥टेक॥ दान शील तप भावना, निहचै व्योहार॥ जैन.॥ निहचै चारों को धनी, चेतन शिवकार । परम्परा शिव देत है, शुभभावविथार ॥ जैन.॥१॥ दान दये बहु सुख लये, को कहै विचार। निरधन बामण दानतें, लहै रतन अपार ।। जैन.॥२॥ घर तजि वन दिढ़ शील जे, पालैं मुनि सार। अनुव्रत सीता शीलतै, पावक जलधार ॥ जैन.॥३॥ तपकी महिमा को क है, जानै नरनार।... .. सिंघ तनिक तपस्या करी, भयो देवकुमार॥जैन.॥४॥ भावन भावं धन्य जे, तजि परिग्रहभार । मेंढक पूजा भावसों, गयो सुरगमझार ॥जैन.॥५॥ नमस्कार यह जोग है, यह मंगलाधार । ये ही उत्तम लोकमें, यह शरन निहार ॥ जैन.॥६॥ घारौं घात जीवको, रख लेहु उबार। 'द्यानत' धर्म न भूलिये, संसार असार । जैन.॥७॥
हे जिया - हे जीव ! तू हृदय में जैनधर्म को धारण कर। यह निश्चय और व्यवहार से दान, शील, तप एवं षोडशकारण भावनाओं का चिन्तन - इन चार, रूपों में धारण किया जा सकता है।
जो इन चारों का धनी है अर्थात् जिसने इन चारों को धारण किया है वह चेतन ही मंगलकारी है। ये चारों शुभ भावों का विस्तार करते हुए परम्परा से मोक्ष का दाता है, मोक्ष प्रदान करता है।
२७४
झानत भजन सौरभ