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(३१४) परमगुरु बरसत ज्ञान झरी॥ टेक ॥ हरषि हरषि बहु गरजि गरजिकै, मिथ्यातपन हरी ॥ परमगुरु.॥ सरधा भूमि सुहावनि लागै, संशय बेल हरी। भविजनमनसरवर भरि उमड़े, समुझि पवन सियरी॥ परमगुरु.॥१॥ स्यादवाद नय बिजली चमकै, पर-मत-शिखर परी। चातक मोर साधु श्रावकके, हृदय सुभक्ति भरी।। परमगुरु.॥२॥ जप तप परमानन्द बढ़यों है, सुसमय नींव धरी। 'द्यानत' पावन पावस आयो, थिरता शुद्ध करी॥ परमगुरु.॥३॥
हे अर्हत् ! ध्यान-मुद्रा में आसीन व निमग्न आपके उपयोग में ज्ञान को वर्षा हो रही है, निरन्तर ज्ञानोपयोग की झड़ी लग रही है। जिस प्रकार मेघों की गर्जन और वर्षा से तपन दूर होती है उस ही प्रकार दिव्यध्वनिरूपी ज्ञान की अजस्र धारा से मिथ्यात्व की तपन दूर हो रही है जिससे बहुत हर्ष हो रहा है।
श्रद्धा/विश्वासरूपी भूमि सुहावनी है क्योंकि यही वह आधार है जिस पर संशयरूपी बेल का हरण हो जाता है अर्थात् संशयरूपी बेल नष्ट हो जाती है। जल से प्लावित होकर सरोवर के ऊँचे आ रहे जल स्तर की भाँति भव्यजनों के मन भक्ति से उमड़ रहे हैं, जैसे जल को छूकर बहते हुए पवन में शीतलता/ ठंडक आ जाती है उसी प्रकार ज्ञानरूपी पवन में भी शीतलता आ रही है।
स्याद्वाद एवं नय सिद्धान्तों की बिजली की कौंधाचमक अन्य मतों के मस्तक पर गिरकर उनकी धारणाओं को चूर-चूर कर देती है, ध्वस्त कर देती हैं । मेघ ऋतु में प्रसन्न होनेवाले पक्षी चातक और मोर की भाँति साधुजन के हृदय भक्ति से उल्लसित हो जाते हैं, भर जाते हैं । जप, तप से परम आनन्द में निरन्तर वृद्धि हो रही है और ज्ञान का सदृढ़ आधार उस शुभ घड़ी में निर्मित होता है, तैयार हो रहा है। द्यानतराय कहते हैं कि समवसरण का पावन सान्निध्य वर्षा की भांति है, जिससे समस्त संशयरूपी मैल धुलकर निर्मल ज्ञान में स्थिरता होती है।
इस भजन में समवसरण में विराजित अहेत् की दिव्यध्वनि का वर्णन किया गया है।
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द्यानत भजन सौरभ