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भली भई यह होरी आई, आये चेतनराय ।। टेक ॥ काल बहुत प्रीतम बिन बीते, अब खेलौं मन लाय॥ भली. ॥१॥ सम्यक रंग गुलाल बरतमें, राग विराग सुहाय ॥ भली. ।। २॥ 'द्यानत' सुमति महा सुख पायो, सौ वरन्यों नहिं जाय। भली.॥३॥
सुमति कहती है कि होली का, आनन्द का अवसर आ गया है कि आत्मा को आत्मा की रुचि जागृत हुई है तो कितना भला लग रहा है !
बहुत समय बीत गया, तब आत्मा पर की और उन्मुख व रत था इसलिए मैंने बहुत समय प्रीतम/आत्मरुचि के बिना ही बिताया है, अब उसे अपना ध्यान आया है। अब मैं मन लगाकर होली खेलूँगी।
सम्यक्त्वरूपी रंग-गुलाल लेकर राग से विरक्त होकर शोभित होऊँगी।
द्यानतराय कहते हैं कि सुमति को इस प्रकार जो सुख मिला. है, प्राप्त हुआ है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, वह अवर्णनीय है अर्थात् आत्मा में मगन होने पर आनन्द की अनुभूति का वर्णन अकथनीय है।
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धानत भजन सौरभ