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( २५१ )
प्राणी लाल! धरम अगाऊ धारौ ।। टेक ॥
जबलौं धन जोवन हैं तेरे, दान शील न खिसारौ । ग्रागी ॥
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जबल करपद दिढ़ हैं तेरे, पूजा तीरथ सारौं । जीभ नैन जबलौं हैं नीके, प्रभु गुन गाय निहारौ ॥ प्राणी ।। १ ।
आसन श्रवन सबल हैं तोलौं, ध्यान शब्द सुनि धारौ । जरा न आवै गद् न सतावै, संजम परउपकारी ॥ प्राणी ॥ २ ॥
देह शिथिल मति विकल न तौलौं, तप गहि तत्त्व विचारौ । अन्तसमाधि पोत चढ़ि अपनो, 'द्यानत' आतम तारौ ॥ प्राणी. ॥ ३ ॥
हे प्राणी, हे लाल ! अब तुम पहले धर्म - धारण करो। जब तक यौवन व धन तुम्हारे पास हैं, तुम दान, शील व संयम को मत भूलो।
हे प्राणी ! जब तक हाथ-पाँवों में दृढ़ता है, शक्ति है तब तक पूजा करो, सब तीर्थं - क्षेत्रों की यात्रा करो। जब तक जीभ व आँखों में शक्ति है अर्थात् वचन - उच्चारण की व देखने की शक्ति भली प्रकार है तब तक अपने प्रभु के गुणों का गुणगान करो, स्तवन- स्मरण करो ।
हे प्राणी! जब तक सुनने की और आसन पर अभ्यासपूर्वक बैठने या खड़े होने की शक्ति है तब तक शास्त्र - श्रवणकर हृदय में धारण करो, ध्यान करो। अरे जब तक बुढ़ापा न आवे, रोग न सतावे तुम संयम का पालन करो, अन्य जनों का भला करो, उपकार करो।
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हे प्राणी ! जब तक देह अशक्त न हो, तब तक तत्व चिंतनकर तप साधन करो, उनके निर्वाह का अभ्यास करो । तत्पश्चात् अन्त समय में समाधिरूपी जहाज पर चढ़कर इस आत्मा को भवसागर के पार करलो, तार दो, ऐसा द्यानतराय कहते हैं ।
अगाऊ = पहले, अग्रिम गद = रोग ।
द्यानत भजन सौरभ
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