Book Title: Dyanat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajkot

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Page 392
________________ ( ३०९ ) नगरमें होरी हो रही हो ॥ टेक ॥ मेरो पिय चेतन घर नाहीं, यह दुख सुन है को ॥ नगर. ॥ १ ॥ सोति कुमतिके राच रह्यो है, किहि विध लाऊं सो ॥ नगर ॥२॥ 'द्यानत' सुमति कहै जिन स्वामी, तुम कछु सिच्छा दो । नगर. ॥ ३ ॥ नगर में होली मनाई जा रही है। सुमति कह रही है कि यह मेरा चेतन अपने आत्मा में स्थित नहीं है। पर की और पुदल की ओर उन्मुख व रत हैं। यह दुःख कौन सुन रहा है ? अर्थात् कोई भी इस बात पर ध्यान ही नहीं दे रहा है। यह चेतन मेरी सौत कुमति के साथ रंगरेली मना रहा है, उसको अपने घर पर वापस किस प्रकार लाऊँ? अर्थात् आत्मा में आत्मा को किस प्रकार स्थिर करूँ ? द्यानतराय कहते हैं कि सुमति इस प्रकार भगवान से प्रार्थना करती है कि आप ही उसे किसी प्रकार समझाओ, उसे शिक्षा दो, उपदेश दी। ३५८ धानत भजन सौरभ

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