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(३०८) चेतन खेलै होरी ॥ टेक॥ सत्ता भूमि छिमा वसन्तमें, समता प्रानप्रिया सँग गोरी ॥ चेतन.॥ मनको माट प्रेमको पानी, तामें करुना के सर घोरी। ज्ञान ध्यान पिचकारी भरिभरि, आपमें छोरै होरा होरी ॥१॥ गुरु के वचन मृदंग बजत हैं, नय दोनों डफ ताल टकोरी। संजम अतर विमल व्रत चोवा, भाव गुलाल भरै भर झोरी॥२॥ धरम मिठाई तप बहु मेवा, समरस आनंद अमल कटोरी। 'द्यानत' सुमति कहै सखियनसों, चिरजीवो यह जुगजुग जोरी॥ ३ ॥
अरे देखो! चेतन किस प्रकार होली खेलता है !
सर्व चेतन प्रदेश के अस्तित्व/सत्तारूपी भूमि में व्याप्त क्षमा गुणरूपी बसन्त ऋतु के सुहाने मौसम में प्राणों से प्यारी समतारूपी नारी साथ है । अर्थात् जैसे वसन्त ऋतु आने पर वातावरण बहुत आनन्ददायक हो जाता है उसी प्रकार क्षमा गुण प्रकट होने पर वातावरण आनन्ददायक हो गया है, तब चेतन अपनी प्रिया समता के साथ होली खेलता है।
मन पात्र (बर्तन) है. जिसमें प्रेमरूपी पानी भरा है। उसमें करुणारूपी केसर घोली हुई है । उस पात्र में से (करुणारूपी केसरयुक्त प्रेमरूपी पानी) ज्ञान और ध्यानरूपी पिचकारी (में) भर-भर कर चेतन और समता आपस में एक-दूसरे पर डालकर परस्पर होड़ लगाते हुए होली खेलते हैं।
गुरु के वचन, मृदंग (बजने से होनेवाली) - ध्वनि के समान है। गुरु के वचनों में निहित दोनों नय (निश्चय व व्यवहार) डफ पर पड़नेवाली थाप से उत्पन्न नाद व ताल के द्योतक हैं । संयमरूपी इत्र और विमल व्रतरूपी सुगन्धित द्रव्य से सने भावों की गुलाल से झोली भरते हैं, इसप्रकार सबको एकत्रित करते हैं ।
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धानत भजन सौरभ