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(३०६) .. कर्मनिको पेलै, ज्ञान दशामें खेलै । टेक॥ सुख दुख आवै खेद न पावै, समता रससों ठेलै॥ कर्म. ॥१॥ सुदरब गुन परजाय समझके, पर-परिनाम धकेलै । कर्म. ॥२॥ आनंदकंद चिदानंद साहब, 'धानत' अंतर झेलै॥ कर्म. ॥ ३॥
हे जिय! कर्मों को नष्ट करने पर ज्ञान दशा प्रगट होती है, जैसे ईख को पेलने पर मिष्ठ रस की प्राप्ति होती है। इसलिए ज्ञानी ज्ञान में ही रमता है, उसी में क्रीड़ा करता है।
सुख न दुःख दोनों पर हैं। इसलिए उनके आने पर ज्ञानी चित्त में कोई किसी प्रकार का खेद नहीं करता। समता से, ज्ञाता दृष्टा होकर उस समय को व्यतीत करता है। ___द्रव्य-गुण- पर्याय के स्वरूप को समझकर, परद्रव्य की पर्याय को अपने से दूर भगाता, उसे दूर धकेलता है ।
द्यानतराय कहते हैं कि उस स्थिति में आत्मा आत्मा में मगन होकर अंतर में आनन्द की अनुभूति करता है।
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द्यानत भजन सौरभ