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s राग आसावरी गहु सन्तोष सदा मन रे! जा सम और नहीं धन रे॥टेक। आसा कांसा भरा न कबहूं, भर देखा बहुजन रे। धन संख्यात अनन्ती तिसना, यह बानक किमि बन रे॥ गहु. ॥१॥ जे धन ध्या, ते नहिं पावै, छांडै लगत चरन रे॥ यह ठगहारी साधुनि डारी, छरद अहारी निधन रे।। गहु.॥२॥ तरुकी छाया नरकी माया, घटै बट्टै छन छन रे। 'धानत' अविनाशी धन लागें, जानें त्यागें ते धन रे॥ गहु.॥३॥
अरे जिया ! अपने मन में सदा सन्तोष ग्रहण करो। (इस) सन्तोष के समान और कोई धन नहीं है । बहुत लोगों ने तृष्णा - आशारूपी थाल को भरने का प्रयास कर देख लिया है पर यह थाल कभी भी नहीं भरा।
धन सम्पदा सीमित होती है, गिनती की होती है, तृष्णा अनन्त होती है, यह व्यापार किस प्रकार सफल होगा?
जो व्यक्ति धन की ही कामना/आराधना करते हैं, वे धन पाने के लिए अपने सहज आचरण को भी छोड़ देते हैं, फिर भी धन प्राप्त नहीं कर पाते ! यह ठगपने की क्रिया है, यह क्रिया साधु/सज्जन पुरुष को भी (अपनी गरिमा से) गिरा देती है जैसे कोई अस्वस्थ अवस्था में आहार करनेवाला व्यक्ति मरण को प्राप्त होता है। __ पेड़ की छाया और मनुष्य की मायाचारी प्रतिक्षण घटती-बढ़ती रहती है। द्यानतराय कहते हैं कि जागते हुए ऐसे धन को त्याग दो और उस अविनाशी धन की प्राप्ति के लिए, जिसका कभी नाश न हो, चेष्टा में लग जाओ।
छरद (छर्दि) = अस्वस्थता; छरद अहारी - अस्वस्थता में आहार करनेवाला।
धानत भजन सौरभ
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