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(२८०) धनि धनि ते मुनि गिरिवनवासी॥ टेक ।। मार मार जगजार जारते, द्वादश व्रत तप अभ्यासी ॥ धनि.॥ कौड़ी लाल पास नहिं जाळे, जिन छेदी आमापासी ! आतम-आतम, पर-पर जानें, द्वादश तीन प्रकृति नासी धनि.॥१॥ जा दुख देख दुखी सब जग है, सो दुख लख सुख द्वै तासी। जाकों सब जग सुख मानत है, सो सुख जान्यो दुखरासी ॥धनि. ॥२॥ बाहज भेष कहत अंतर गुण, सत्य मधुर हितमितभासी। 'द्यानत' ते शिवपंथपथिक हैं, पांव परत पातक जासी॥ धनि.॥३॥
अहो। वे मुनिराज जो पहाड़ों पर रहते हैं, वन में रहते हैं, धन्य हैं । जो बारह व्रत व तप की साधना करते हैं, उनका पालन कर, जगत को जलानेवाली काम की मार को नष्ट करते हैं।
जिनके पास एक कौड़ी भी नहीं है । जो सर्वांग रूप से, सब प्रकार सब ओर से आत्मा व पुद्गल के भेदज्ञान द्वारा पंद्रह प्रकार के प्रमाद को जीतते हैं, वश में करते हैं अर्थात् आत्मा को आत्मा व पुद्गल को जड़ जानकर आचरण करते हैं, उस भेदस्थिति का ध्यान करते हैं वे मुनिराज धन्य हैं ।
जिन दुःखों को देखकर सारा जगत दुखी है, वे उन्हीं दु:खों को सुख का (निमित्त) कारण मानते हैं । ऐसे पौद्गलिक सुख को, जिसे सारा जगत सुख का कारण मानता है, वे दु:ख के कारण हैं जिन्होंने यह जान लिया है वे मुनिराज धन्य हैं।
बाह्य के भेष से आंतरिक गुणों का अनुमान-ज्ञान होता है। जो सत्य, मीठे तथा हितकारी वचन बोलते हैं, ऐसे मुनिजन मोक्षमार्ग के पथिक हैं, राही हैं। जिधर से वे विचरण करते हैं उनके चरणों के प्रभाव से पापों का नाश होता है। उनके चरण वंदनीय हैं, पापनाशक हैं। मार = कामदेव: १५ प्रमाद .. ४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय-विष्य, १ निद्रा, १ राग।
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घानत भजन सौरभ