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(२९२) मैं न जान्यो री! जीव ऐसी करैगो । टेक॥ मोसौं विरति कुमतिसों रति कै, भवदुख भूरि भैरैगो । मैं. ॥१॥ स्वारथ भूलि भूलि परमारथ, विषयारधमें परैगो ॥ मैं.॥ २॥ 'द्यानत' जब समतासों राचै, तब सब काज सरैगो॥ मैं.॥३॥
हे जीव! तू इस प्रकार का आचरण-व्यवहार करेगा मैं ऐसा नहीं जानता था ! मुझसे (आत्मा से, सुमति से) इतना उदासीन होकर तू कुमति के प्रति आसक्त होगा और संसार के अनन्त दुःखों को भोगेगा, सहन करेगा!
अपना हित, अपना भला, अपना परमार्थस्वरूप भूलकर, तू इन इन्द्रियविषयों में रमने के लिए इतना उत्सुक होता रहेगा!
द्यानतराय कहते हैं कि जब तू समता को धारण करेगा तब ही तेरा मनोरथ पूरा होगा, कार्य सम्पन्न होगा।
धानत भजन सौरभ