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कौन सहामी बात चलावै, पूछ आनमती तौ। ग्रंथ लिख्यो तुम क्यों नहिं मानौ, ज्वाब कहा कहि जीतौ ।। कलि.॥१०॥ जैनी जैनग्रंथके निदक, हुण्डासपिनि जारा।। 'द्यानत' आप जान चुप रहिये, जगमें जीवन थोरा।। कलि.॥११॥
कलिकाल में अर्थात् इस पंचमकाल में ग्रंथ ही सब प्रकार से उपकार करनेवाले हैं। ये ग्रंथ देव, शास्त्र व गुरु में सम्यक् श्रद्धा धारण करानेवाले हैं।
चतुर्थ काल को समाप्ति में जब तीन वर्ष आठ माह और पंद्रह दिन शेष रहे थे तब भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था।
भगवान महावीर के बाद तीन केवली और पाँच श्रुत केवली हुए, उनके पश्चात् गरुओं के विचार में आया कि अब भगवान के उपदेश जो बारह अंगों और चौदह पूर्वो के रूप में हैं उन अंगों-पूर्वो का ज्ञान सुरक्षित नहीं रह पायेगा, यह बात निश्चित है।
तब भव्यजनों के लाभार्थ तथा धर्म के प्रसार व रक्षा के लिए आचार्यों ने ग्रन्थों की रचना की। बहुत से ग्रंथों की टीकाएँ भी की जिसमें विषय का अद्भुत विश्लेषण करते हुए सार का समावेश किया गया।
अब केवली व श्रुत केवली इस क्षेत्र में नहीं हैं तथा मुनियों के ज्ञान में स्पष्ट झलकना भी समाप्त होता जा रहा है, अब तो ये शास्त्र/ग्रंथ ही केवलि व श्रुत केवलि (दोनों) हैं, मुनिजन भी इन्हीं को ज्ञान के आधार मानते हैं। __ अब आप ही स्वयं अध्ययन कीजिए, पूजा व वंदना करिए। द्रव्य व्यय करके ग्रन्थों की अमृतरूप वाणी को लिखवाइए, प्रकाशित कीजिए । पण्डितजनों को अर्थात् विद्वानों को अध्ययन, मनन, विश्लेषण व वाचनार्थ दीजिए । पण्डितजनों का बहुमान कीजिए, सम्मान कीजिए।
पढ़ते समय व उस पर चर्चा करते हुए यदि कोई शंका या संदेह हो तो उसे आगम के अनुसार जिस प्रकार केवली ने अपने ज्ञान से देखा है उसी प्रकार ठीक व सही कीजिए।
झानत भजन सौरभ
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