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(२७५) ज्ञानी जीव-दया नित पालैं । टेक॥ आरंभ परघात होत है, क्रोध पात निज टालें । ज्ञानी. ।। हिंसा त्यागि दयाल कहावै, जलै कषाय बदनमें। बाहिर त्यागी अन्तर दागी, पहुँचै नरकसदनमें ।। ज्ञानी. ॥ १॥ करै दया कर आलस भावी, ताको कहिये पापी। शांत सुभाव प्रमाद न जाकै, सो परमारथव्यापी । ज्ञानी. ॥ २॥ शिथिलाचार निरुद्यम रहना, सहना बहु दुख भ्राता। 'धानत' बोलन डोलन जीमन, करें जतनसों ज्ञाता ।। ज्ञानी.।।३।।
........ ज्ञानी जीव सदैव याद होते हैं । आरम्भ (क्रिया) करने से परजीवों का घात
होता है और क्रोध से स्वयं का घात होता है । ज्ञानी उन दोनों अवस्थाओं को टालते हैं, उनसे अपने को बचाते हैं अर्थात् वे निजघात व परघात दोनों को टालते
हैं।
बाह्म में हिंसा छोड़ने पर दयालु कहे जाते हैं, परन्तु कषायों के कारण अंतरंग में वे जल रहे हैं। ऐसे बाहर से त्यागी दिखाई देनेवाले, अंतरंग में सब परिग्रहों को ढो रहे जीव/प्राणी नरकगामी होते हैं।
दया करने में जिन्हें आलस्य आता है, उन्हें पापी कहा जाता है। परन्तु जो शांत स्वभावी हैं, अप्रमादी-प्रमादरहित है, सावधान हैं वे परमार्थ में लीन रहते
__ अरे भाई ! शिथिलाचार और पुरुषार्थहीन बने रहना तो बहुत दुःखों का कारण है। द्याततराय कहते हैं कि बोलने में, चलने में, भोजन में जो यत्नपूर्वक व्यवहार करता है, वह ही ज्ञानी है।
आरम्भ क्रिया - पाए क्रिया।
धानत भजन सौरभ