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राग काफी भाई! कहा देख गरवाना रे॥टेक ।। गहि अनन्त भव तैं दुख पायो, सो नहिं जात बखाना रे।। भाई.॥ माता रुधिर पिताके वीरज, तातै तू उपजाना रे। गरभ वास नवमास सहे दुख, तल सिर पांव उचाना रे।। भाई.॥१॥ मात अहार चिगल मुख निगल्यो, सो तू असन गहाना रे। जंती तार सुनार निकालै, सो दुख जनम सहाना रे॥ भाई. ॥२॥ आठ पहर तन मलि मलि धोयो, पोष्यो रैन बिहाना रे। सो शरीर तेरे संग चल्यो नहि, खिनमें खाक समाना रे॥भाई.॥३॥ जनमत नारी, बाढ़त भोजन, समरथ दरब नसाना रे। सो सुत तू अपनो कर जाने, अन्त जलावै प्राना रे। भाई.॥४॥ देखत चित्त मिलाप हरै धन, मैथुन प्राण पलाना रे। सो नारी तेरी है कै से, मूवें प्रेत प्रमाना रे ॥ भाई. ॥ ५ ॥ पांच चोर तेरे अन्दर पैठे, ते ठाना मित्राना रे । खाय पीय धन ज्ञान लूटके, दोष तेरे सिर ठाना रे।। भाई. ॥६॥ देव धरम गुरु रतन अमोलक, कर अन्तर सरधाना रे। 'द्यानत' ब्रह्मज्ञान अनुभव करि, जो चाहै कल्याना रे॥ भाई.॥७॥
अरे भाई ! क्या देखकर तुम इतना गर्व कर रहे हो! अनन्त भव धारणकर तुमने जो दुख पाया है, उन दुखों का वर्णन किया जाना संभव नहीं है।
माता के रज, पिता के वीर्य से तेरी उत्पत्ति हुई, गर्भ में नौ महीने दुःख पाए .. जहाँ सिर नीचे तथा पाँव ऊपर किये रहे। द्यानत भजन सौरभ
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