________________
( २४५ )
दुरगति गमन निवारिये, घर आव सयाने नाह हो ॥ टेक ॥ पर घर फिरत बहुत दिन बीते, सहित विविध दुखदाह हो ॥ १ ॥ निकसि निगोद पहुँचवो शिवपुर, बीच बसें क्या लाह हो ॥ २ ॥ 'द्यानत' रतनत्रय मारग चल, जिहिं मग चलत हैं साह हो ॥ ३ ॥
हे आत्मन् ! भव--भ्रमण के कारण जो तुम्हारी दुर्गति हो रही है उसका निवारण करो, उसे दूर करो और हे सयाने, अपने घर में, जिसके तुम स्वामी हो उसमें तुम वापस आ जाओ।
भव भव में, अन्य-अन्य घर में, पर्यायों में भ्रमण करते हुए तुम्हें बहुत काल/ समय बीत गया, जहाँ तुम बहुत प्रकार के दुःखों के ताप के साथ रहे हो । निगोद से निकलकर मोक्ष को जावो। उन दोनों के बीच में इस संसार में बसेरा करने से तुम्हें क्या लाभ होगा?
द्यानतराय कहते हैं कि हे आत्मन्! रत्नत्रय के सुपथ पर चल । जिस मार्ग पर साधु सज्जन चलते हैं।
नाह
=
२८२
नाथ, स्वामी, मालिक; लाह
=
लाभ; साह
=
साधु, सज्जन ।
द्यानत भजन सौरभ