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झूठा सपना यह संसार ॥ टेक ॥ दीसत है विनसत नहिं बार ॥ झूठा ॥
मेरा घर सवतैं सिरदार, रह न सके पल एकमँझार ॥ झूठा ॥ १ ॥ मौसम्पति अघि सार, चिलै लागे न अबार ॥ झूठा ॥ २ ॥ इन्द्रीविषै विषैफल धार, मीठे लगें अन्त खयकार ॥ झूठा ॥ ३ ॥ मेरो देह काम उनहार, सो तन भयो छिनकमें छार ॥ झूठा ॥ ४ ॥ जननी तात भ्रात सुत नार, स्वारथ बिना करत हैं ख्वार ॥ झूठा ॥ ५ ॥ भाई शत्रु होंहिं अनिवार, शत्रु भये भाई बहु प्यार ॥ झूठा ॥ ६ ॥ 'धानत' सुमरन भजन अधार, आग लगें कछु लेहु निकार ॥ झूठा ॥ ७ ॥
यह संसार एक झूठा सपना है। अरे जो दिखाई देता है, उसके विनाश होने में कोई देर नहीं लगती ।
मनुष्य अपने घर के लिए गर्व करता है मेरा घर सत्र में श्रेष्ठ है, सर्वोपरि है । पर वह घर भी एक पल में नष्ट हो जाता है ।
यह धन-सम्पत्ति मेरे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, पर वह भी तुरन्त छोड़कर चली जाती है। उसे भी जाने में देर नहीं लगती।
इन्द्रिय विषय-भोग त्रिष फल के समान दुःखदायी हैं जो प्रारम्भ में तो मीठे/ रुचिकर लगते हैं और अन्त में दुःखी करते हैं, क्षय करते हैं, नाश करते हैं ।
मनुष्य अपनी सुन्दरता का गर्व करता है कि मेरी देह कामदेव के समान सुन्दर हैं। वह सुन्दर देह भी पलभर में जलकर स्वाहा हो जाती हैं, राख हो जाती है।
द्यानत भजन सौरभ
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