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(९७) कारज एक ब्रह्महीसेती ॥ टेक॥ अंग संग नहिं बहिरभूत सब, थन दारा सामग्री तेती ॥ कारज. ।। सोल सुरग नव ग्रैविकमें दुख, सुखित सातमें ततका वेती। जा शिधकारन मुनिगन ध्यावे, सो तेरे घट आनँदखेती॥ कारज. ॥१॥ दान शील जप तप व्रत पूजा, अफल ज्ञान बिन किरिया केती। पंच दरब तोते नित न्यारे, न्यारी रागदोष विधि जेती॥कारज ॥ २॥ . तू अविनाशी जगपरकासी, 'द्यानत' भासी सुकलावेती। तजौ लाल! मनके विकलप सब, अनुभव-मगन सुविद्या एती। कारज.॥३॥
हे जीव! निज ब्रह्म में लीन रहना, मगन रहना, यह ही तो एक करणीय है, कार्य है, परिणाम है। यह देह, धन, स्त्री और परिग्रह की सामग्री ये सब बाह्य
सौलहवें स्वर्ग व नव ग्रैवियक में भी वह दुःखी है। सुखी तो सात तत्वों को जाननेवाला है, जिस सुख प्राप्ति के निमित्त मुनिगण भी जिसकी स्तुति-चिन्तन करते हैं वह आनन्द का क्षेत्र तेरे अपने अन्तर में ही हैं।
बिना ज्ञान के शील, जप, तप, व्रत, पूजा आदि की क्रियाएँ भी कोई फल देनेवाली नहीं हैं । पाँचों द्रव्य भी तुझसे भिन्न हैं और राग-द्वेष की विधि भी तुझ से अलग है।
द्यानतराय कहते हैं कि तू अविनाशी हैं, जेता है, प्रकाशी है, शुक्ल ध्यान में लीन है। इसलिए हे भव्य ! तू मन के सब विकल्प छोड़कर अपने आत्मा के अनुभव की सुविधा में मगन हो जा।
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द्यानत भजन सौरभ