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(१९९) मोहि तारो जिन साहिब जी॥टेक॥ दास कहाऊं क्यों दुख पाऊं, मेरी ओर निहारो ।। मोहि.॥१॥ षटकाया प्रतिपालक स्वामी, सेवकको न बिसारो।। मोहि. ॥२॥ 'द्यानत' तारन तरन विरद तुम, और न तारनहारो॥ मोहि. ॥३॥
हे जिन ! हे स्वामी ! मुझको भवसागर से पार उतारो, भवसागर से तार दो।
मैं आपका दास कहलाता हूँ, फिर मैं संसार के दु:खों का भार वहन क्यों करूँ अर्थात् क्यों दुख झेलूँ? आप कुपाकर मेरी ओर भी दृष्टि कीजिए।
आप षटकाय के जीवों के प्रतिपालक अर्थात् स्वामी हैं । आप इस सेवक को मत बिसराइए, मत भूलिए ।
द्यानतराय कहते हैं कि आपका विरद, आपकी विशेषता/प्रसिद्धि है कि आप स्वयं तिरनेवाले हैं और दूसरों को भी तारनेवाले हैं। आपके अलावा दूसरों को तारनेवाला अन्य कोई नहीं है।
द्यानत भजन सौरभ
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