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राग सोरठ जिनराय! मोहे भरोसो भारी ।। टेक॥ सुर नरनाथ विभूति देहु तौ, अब नहिं लागत प्यारी॥जिनराय.।। सिरीपाल भूपाल विथा गई, लहि सम्पत अधिकारी। सूली सेठ अगनितें सीता, कहा भयो जो उबारी।। जिनराय.॥१॥ विदित रूप पुर तसकर दुरा, भये अमर अवतारी .......... :: . भवसुदत्त अरु सालभद्रकी, किहि कारण रिधि सारी ॥जिनराय. ॥ २॥ भेक स्वान गज सिंह भये सुर, विषय रीति विस्तारी। कृश्न पिता सुत बहु रिधि पाई, विनाशीक हम धारी ।। जिनराय. ।। ३ ।। जातिविरोध जात जीवनिके, मूरति देखि तिहारी। मानतुङ्गके बन्धन टूटे, यह शोभा तुम न्यारी।। जिनराय. ।। ४ ।। तारन तरन सुविरद तिहारो, यह लखि चिन्ता डारी। 'धानत' शिवपद आप हि देहो, बनी सु बात हमारी॥ जिनराय.॥५॥
है जिनराज! मुझे आप पर अत्यन्त भरोसा है, विश्वास है ? यदि कोई देव या राजा मुझे कोई वैभव प्रदान करे तो अब वह भी मुझे प्रिय नहीं है।
राजा श्रीपाल ने आप पर विश्वास किया तो उसकी सब व्यथा दूर हो गई, उसे बहुत सम्पत्ति भी मिली। सेठ सुदर्शन को सूली से और सीता को अग्निकुण्ड से बचाने व उबारनेवाले आप ही हैं।
अंजन चोर के रूप में विख्यात भी देवगति को प्राप्त हुए । सुदत्त व भद्रसाल किस कारण सब ऋद्धि के स्वामी हुए?
मेंढक, कुत्ता, गज और सिंह सन्न देव पद को प्राप्त हुए और उस व्यवस्था का विस्तार किया। प्रद्युम्न ने कष्टों को नष्ट करनेवाले आपका आधार लिया और बहुत प्रकार की ऋद्धि पाई।
धानत भजन सौरभ
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