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राग जैजैवंती चाहत है सुख पै न गाहत है धर्म जीव, सुखको दिवैया हित भैया नाहि छतियाँ ।। टेक॥ दुखौं डरै है पै भैरै है अघसेती घट, दुखको करैया भय दैया दिन रतियां ॥ चाहत.॥ १।। बोयो है बबूलमूल खायो 'चाहै अंब भूल, दाह ज्वर नासनिको सोवै सेज ततियां ।। चाहत.॥२॥ 'द्यानत' है सुख राई दुख मेरुकी कमाई, देखो राई चेतनकी चतुराई बतिया । चाहत॥ ३॥
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हे जीव ! तू सुख चाहता है, पर सुख को देनेवाले धर्म को ग्रहण नहीं करता! ऐसी हितकारी बात तेरी छाती में, हिये में, मन में नहीं आती!
तू सदा दु:ख से डरता है, पर पापों से तूने अपना घड़ा भर रखा है, जो दुःख का कारण है।दु:ख उत्पन्ना करनेवाला है और दिन-रात भयदायक अर्थात् भयकारी है।
तेरी बातें ऐसी हैं जैसे कोई बबूल बोकर भूल से आम खाना चाहता है । जैसे कोई दाह व ज्वर का नाश करने के लिए गर्म-गर्म (तप्त) सेज पर सोता हो?
द्यानतराय कहते हैं कि सुख राई के समान अत्यन्त अल्प/सूक्ष्म लगता है और दुःख मेरु के समान दीर्घ-विशाल लगता है। फिर भी इस चेतन राजा की चतुराईभरी बातों को तो देखो कि वह बिना किसी यल के सदा सुख की कामना करता है !
अंब - आम; बायो - बोया है।
यानत भजन सौरभ