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(२३७) ........: : . ...: राग आशावरी ऑॉगया . . जीव! तँ मेरी सार न जानी॥टेक॥ हम तुम बहुत बार मिल बिछुरे, आदि किन्हीं न पिछानी ॥ जीव.।। पाप पुन्य दो धुरके साथी, नरक सुरगलौं दौरें । कह तैनैं को दिढ़ करि पोष्यो, सो करि है तुम गौरैं।। जीव.॥१।। सीस आंख मुख कान पान पद, सब ही पच पच मूए। तैं अपनो हित क्यों नहिं कीना, हम कब आड़े हुए। जीव. ॥ २॥ जो कोई जन चाकर राखै, कण दै काम करावै। तू क्यों सोय रह्यो निशिवासर, पछताये क्या पावै॥जीव.॥३॥ मैं करई तूंबरि जो जानै, परिग्रह भार निकारै ! छयकर राग दोष तप सोखै, भव जल पार उत्तारै॥जीव. ॥ ४॥ नर कायाको सुरपति तरसैं, कब मैं लैऊ दिच्छा। आरौं पंच महाव्रत धरिये, करि यो 'द्यानत' सिच्छा॥जीव.॥५॥
हे जीव! तूने मेरी वास्तविकता को, मेरी असलियत को, तत्त्व की बात को नहीं जाना । तू और मैं अनेक बार मिले हैं और अनेक बार बिछुड़े हैं । इस तथ्य
का आदि कब हुआ, यह कोई नहीं जानता। ____ पाप-पुण्य, दोनों इस धुरी के पृथक् पृथक् छोर हैं, साथी हैं, जो कभी नरक व कभी स्वर्ग तक की दौड़ लगाते हैं। तुम ही जरा इस बात पर ध्यान दो कि इसे बनाए रखने के लिए कितना पोषण दिया?
शीश, नेत्र, मुँह, कान पाकर के भी सब पच-पच कर मर गए। तूने अपना हित क्यों नहीं किया? ये सब कब तुझे रोकने के लिए बाधक बने? कब बीच में आए? अर्थात् तेरा अपना हित करने में ये तेरे बाधक कब बने?
झानत भजन सौरभ