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चेत रे! प्रानी! चेत रे!, तेरी आव है थोरी ॥ टेक ॥ सागरथिति धरि खिर गये, बँधे कालकी डोरी ॥ चेत. ।।
पाप अनेक उपायकै माया बहु जोरी।
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अन्त समय सँग ना चलै, चलै पापकी बोरी ॥ चेत. ॥ १ ॥
( २३४ )
राग गोरी
मात पिता सुत कामिनी, तू कहत है देहकी देह तेरी नहीं जासों, प्रीति है सिख सुन ले तू कान दे ही धरमके कहै 'धानत' यह सार है, सब बातें कोरी ॥ चेत. ॥ ३ ॥
धारी।
हे प्राणी! तू चेत, जाग, तेरी आयु थोड़ी ही शेष हैं।
अरे जिनकी सागरपर्यन्त की आयु-स्थिति थी, वे भी इस काल की डोरी से बँधे होने के कारण समाप्त हो गए, नष्ट हो गए, खिर गए, मिट गए।
मोरी ।
तोरी ॥ चेत. ॥ २ ॥
हे प्राणी ! तूने अनेक पाप कार्य करके बहुत सम्पत्ति का संचय किया। परन्तु अन्त समय पर ये संचित सम्पत्ति साथ नहीं जाती। यदि साथ जाती है तो मात्र उपार्जित पाप (पुण्य) कर्मों की गठरी, बोरी I
माता-पिता, पुत्र, स्त्री, जिन्हें तू अपना कहता है, वे भी तेरे नहीं हैं, जैसेतेरी देह भी तेरी अपनी नहीं हैं। उनसे तेरी प्रीत है अर्थात् जो तेरे नहीं हैं, तू उनसे प्रीत करता है !
आव आयु ।
हे प्राणी ! ध्यानपूर्वक कान लगाकर सुन, तू बहुत धर्मात्मा बनता है। द्यानतराय कहते हैं कि धर्म ही सार है और अन्य सारी बातें निरर्थक त्र कोरी हैं ।
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धानत भजन सौरभ