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( २३०) कौन काम मैंने कीनों अब, लीनों नरक नियास हो ॥टेक ॥ बहुतनि तप करि सुर शिव साध्यो, मैं साध्यो दुखरास हो॥ नरभव लहि बहु जीव सताये, साधे विषय विलास हो॥ पीतम रिपु रिपु पीतम जानें, मिथ्यामत-विसवास हो॥ कौन. ॥१॥ धनके साथी जीव बहुत थे, अब दुख एक न पास हो। यहां महादुख भोग छूटिये, राग दोषको नास हो॥ कौन. ॥ २॥ देव धरम गुरु नव तत्त्वनिकी, सरधा दिढ़ अभ्यास हो। 'द्यानत' हौं सुखमय अविनाशी, चेतनजोति प्रकाश हो॥ कौन.॥३॥
हे भाई! मैंने ऐसा कौन-सा कार्य किया कि जिसके कारण मुझे नरक में निवास मिला है? मैंने तो बहुत तप किया, अनेक देवों की भक्ति की। मैंने दु:ख सहन करके साधना भी की!
परन्तु नरभव पाकर मैंने बहुत जीवों को यातना दी, उनको सताया और इन्द्रिय विषय और भोगों में रत रहा। दुश्मन को अपना प्रिय और प्रिय को अपना दुश्मन समझता रहा। मिथ्या मतों में विश्वास किया।
जब तक मेरे पास धन था, बहुत से लोग मेरे साथी हो गए थे। अब धन नहीं रहा, दु:ख आ पड़ा है, तब एक भी मेरा साथी नहीं है। अब नरक में बहुत दु:ख पाकर छूटूंगा तो राग व द्वेष दोनों का नाश हो और देव, धर्म और गुरु, और नौ तत्वों की श्रद्धा व उनका अभ्यास हो।
द्यानतराय कहते हैं कि तब ही कभी न विनाश को प्राप्त होनेवाले सुख की प्राप्ति होगी और अपनी ही चेतन-ज्योति का अर्थात् ज्ञान का प्रकाश हो सकेगा।
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-. पौतम - प्रिय व्यक्ति
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द्यानत भजन सौरभ