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राग आसावरी जोगिया
काया ! तू चल संग हमारै ॥ टेक ॥
निशि दिन दोनों रहें एकठे, अब क्यों नेह निवारै ॥ काया ॥
पट आभूषन सौंधे आछे, अन्न पात्र नित दीने ।
ते सब ले दल मल करि डारे, फिर दीनें रस भीने ॥ काया. ॥ १ ॥
पांच वरन रस पांच गंध दो, फरस आठ सुर सातैं ।
सब भुगताये सूम कहाये, दान दियो नहिं जातै ॥ काया ॥ २ ॥ तेरे कारन जीव सँहारे, बोल्यो झूठ अपारा। चोरी की परनारी सेई, डूबे परिग्रह धारा ॥ काया ॥ ३ ॥ तोहि संगे उद्यम करि पोषे, भूलि न अपना कोई | एतेपर तू रीझै नाहीं, बुद्धि कहां खोई ॥ काया ॥ ४ ॥ 'द्यानत' सुख दीये तू जाने, कृतघनि! लख उपगारा। मिथ्या मोहति मरत प्रलापै, भव- वनडोलनहारा । काया. ॥ ५ ॥
ओ मेरी देह ! (मृत्यु के बाद ) तू भी मेरे साथ चल। रात दिन तू और मैं दोनों साथ-साथ रहे हैं, अब तू इस प्रेम बंधन को क्यों तोड़ रही है ?
तुझे अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाये, आभूषण पहनाये, सुन्दर सुन्दर पात्रों में तुझको अच्छा स्वादिष्ट भोजन सुलभ कराया गया, उन सब को मथकर तूने मलरूप कर दिया - मैला बना दिया, फिर भी / उसके बाद भी तुझे सदा रसवान पदार्थ दिए जाते रहे ।
पाँच रंग, पाँच रस, दो गंध व आठ स्पर्श, इन सबका भोग किया पर इनका दान नहीं किया, इसलिए सुम- कंजूस कहलाए ।
ओ मेरी देह ! तेरे कारण मैंने अनेक जीवों का घात किया, बहुत झूठ बोला, चोरी की, परनारी का सेवन भी किया और बहुत परिग्रह भी जुटाया। तेरे लिए
धानत भजन सौरभ
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