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(२२१) हो श्रीजिनराज नीतिराजा! कीजै न्याव हमारो ।। टेक॥ चेतन एक सु मैं जड़ बहु ये, दोनों ओर निहारो॥हो.॥१॥ हम तुममाहि भेद इन कीनों, दोनों दुख अति भारो ।। हो. ॥२॥ 'द्यानत' सन्त जान सुख दाज, दुष्टै देश निकारों ।। हो. ॥३॥
है जिनराय। आप सर्वश्रेष्ठ नीतिज्ञ हैं। आप हमारा न्याय कीजिए।
मैं चेतन एक हूँ-अकेला हूँ और ये पुद्गल बहुत सारे हैं। दोनों की ओर देखिए।
इन कर्मों ने ही आपमें व मुझमें भेद कर रखा है अर्थात् आपमें व मुझमें जो भेद है इन कर्मों का ही है, इन कर्मों के ही कारण है । आप कर्मरहित हैं और हम कर्मसहित । ये कर्म बहुत दुःखदायक हैं।
यानतराय कहते हैं कि हमें भी भला जानकर सुख दीजिए और (कर्म) जो दुष्ट हैं, उन्हें देश निकाला दीजिए अर्थात् दुष्टों को बाहर निकालिए ।
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धानत भजन सौरभ