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(२१८) सेठ सुदरसन तारनहार ॥ टेक ॥ तीन बार दिढ़ शील अखंडित, पालैं महिमा भई अपार ।। सेठ.॥१॥ सूलीत सिंघासन हूवा, सुर मिलि कीनौं जैजैकार । सेठ.॥२॥ सह उपसर्ग लह्यो केवलपद, 'द्यानत' पायो मुकतिदुधार। सेठ. ॥३॥
हे भगवन् ! आप सेठ सुदर्शन को तारनेवाले हैं। उस सेठ सुदर्शन को जिसने तीन बार अखंडित शील की महिमा को, शील की दृढ़ता को यथावत रखकर अर्थात् शील का पालनकर अत्यन्त यश को प्राप्त किया, जिसका कोई पार नहीं
उस सेठ सुदर्शन को जिसके फांसी के तख्ते पर लटक रही प्राणघातक डोरी भी सिंहासनरूप परिवर्तित हो गई और देवताओं ने मिलकर/एकत्र होकर उनका व आपका जय-जयकार किया।
जिनने उपसर्ग सहकर कैवल्य की प्राप्ति की। यानतराय कहते हैं कि उनने मुक्ति का द्वार पा लिया।
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छानत भजन सौरभ