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(२१९) हम आये हैं जिनभूप!, तेरे दरसन को॥ टेक । निकसे घर आरतिकूप, तुम पद परसनको ॥ हम. ॥१॥
वैननिसों सुगुन निरूप, चाहे दरसनकों॥हम. ॥२॥ 'धानत' ध्यावै मन रूप, आनंद बरसन को। हम. ॥३॥
हे जिनराय । हम आपके दर्शन करने को आए हैं।
उस घर से बाहर निकलकर जो दु:खों का कुआँ हैं, हम तेरे पद का, तेरे चरण-कमल का स्पर्शन करने आए हैं।
हे अरूपी ! हम वचनों से आपका गुण-स्तवन करते हैं और आपके रूप के । दर्शन की कामना करते हैं।
द्यानतराय कहते हैं कि मन में आपका ध्यान-चिंतवन करते हैं, तब आनंद बरस पड़ता है अर्थात् मन आनन्द से भर-भर जाता है।
द्यानत भजन सौरभ
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