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(२०७) प्रभु मैं किहि विधि थति करौं तेरी॥टेक ।। गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ।। प्रभु. ।। शक्र जनम भरि सहस जीभ धरि, तुम जस होत न पूरा। एक जीभ कैसैं गुण गावै, उलू कहै किमि सूरा ।। प्रभु.॥ १॥ चमर छत्र सिंघासन वरनों, ये गुण तुमते न्यारे । तुम गुण कहन बचन बल नाही, नैन गिर्ने किमि तारे। प्रभुः ।।२।।
__ हे प्रभु! मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ! आपके गुणों का कथन करने में गणधर भी समर्थ नहीं हो सके तब उन गुणों की गणना करने हेतु मुझ अल्पबुद्धि की क्षमता ही क्या है?
इन्द्र की पर्याय लेकर सैकड़ों जिह्वाओं का बल धारण करके भी आपके यश का पूर्ण गुणगान नहीं किया जा सकता। तब एक जिह्वा से आपका यशोगान कैसे किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं किया जा सकता। सूर्य कैसा है . क्या उलूक (उल्लू) इसका कथन कर सकता है?
सामान्यत: सभी आप के यशगान हेतु छत्र, चँवर, सिंहासन आदि प्रातिहार्यों का कथन करते हैं, पर ये छत्र, चैवर आदि सब तो आपसे सर्वथा भिन्न हैं । आपके गुणों का कथन-वर्णन की सामर्थ्य वचन-शक्ति में नहीं है। क्या कभी इन नेत्रों से तारों की गणना की जा सकती है?
धानत भजन सौरभ
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