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(२०८) प्रभुजी मोहि फिकर अपार॥ टेक॥ दान व्रत नहिं होत हमपै, होहिंगे क्यों पार॥ प्रभु.॥ एक गुन थुत कहि सकत नहि, तुम अनन्त भंडार। भगति तेरी वनत नाहीं, मुकतकी दातार ॥ प्रभु. ।। १ ।। एक भवके दोष के ई, थूल कहूँ पुकार। तुम अनन्त जनम निहारे, दोष अपरंपार ।। प्रभु.॥२॥ नांव दीनदयाल तेरो, तरनतारनहार । वंदना 'धानत' करते हैं, ज्यों बनै त्यों तार ॥ प्रभु.॥३॥
हे प्रभु! मुझे अतीव चिन्ता है । मुझसे दान, व्रत कुछ भी नहीं होता, कुछ भी नहीं सधता । तब किस प्रकार इस संसार-सागर से पार हो सकूँगा?...
आपके अनन्त गुण हैं, आप गुणों के भण्डार हैं । परन्तु मैंने आपके किसी एक गुण की भी स्तुति नहीं की। मुक्ति की ओर अग्रसर करनेवाली आपकी भक्ति भी मुझसे नहीं हो पाती- नहीं बन पाती, मैं कैसे पार हो सकूँगा? ___ मैं स्थूल रूप से मात्र यह ही कह सकता हूँ कि मेरे एक भव में ही अनेक प्रकार के दोष हैं । जबकि आप अनन्त जन्मों को जानते हैं अर्थात् भूत, भविष्य व वर्तमान की समस्त पर्यायों को जानते हैं, उनमें अपार/जिनका पार नहीं पाया जा सकता वे सब दोष हैं और वे आपको दीख रहे हैं।
आपका नाम दीनदयाल है अर्थात् आप दीनों के प्रति दयाल हैं। आप स्वयं तिरने व अन्यजनों को तारनेवाले हैं । धानतराय कहते हैं कि जैसे भी बने आप मुझे इस भवसागर से तार दें, इसके पार लगा दें।
नांव - नाम।
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द्यानात भजन सौरभ