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भवि पूजौ मन वच श्रीजिनन्द, चितचकोर सुख करन इंद॥ टेक।। कुमतिकु मुदिनीहरनसूर, विधनसघनवनदहन भूर ॥ भवि. ॥१॥ पाप उरग प्रभु नाम मोर, मोह-महा-तम दलन भोर॥ भवि.॥२॥ दुख-दालिद-हर अनध-रैन, 'द्यानत' प्रभु र्दै परम चैन ॥ भवि.॥३॥
हे भव्य ! मनोयोग और वचनयोग से श्रीजिनेन्द्र की पूजा कर, जो तेरे चित्तरूपी चकोर को प्रसन्न, सुखी करने के लिए चन्द्रमा के समान हैं।
जो कुमतिरूपी कुमुदिनों (जो रात्रि को ही खिलती है) को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान हैं, जो कठिनाइयों के धने समूहरूपी वन को जलाकर भस्म कर देनेवाले हैं।
हे प्रभु! आपका नाम पापरूपी सर्प के लिए मयुर (मोर) की भाँति है। आपका गुण -चिंतन, आपका नाम मोहरूपी महाअंधकार का नाशकर भोर के समान है।
द्यानतराय कहते हैं कि जिनेन्द्र भगवान दुःखरूपी दरिद्रता का हरण (नाश/ समाप्त) करने के लिए निर्मल (उज्वल/दागरहित/सुन्दर) रत्न हैं। ऐसे प्रभु परमशांति के दाता हैं।
इंद + इंदु . चन्द्रमा; इरग = सांप; सूर -- सूरजः अनघ - निष्कलुष, निर्मल, दागरहित; रैन - रत्ना
धानत भजन सौरभ