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(२००) परमेसुरकी कैसी रीत, मोहि बताओ मेरे मीत ॥ टेक॥ उपजावै संसारी सोय, मारे सो हत्यारो होय ॥१॥ जल थल अगन गगन भुविमाहिं, लघु दीरघ कीजे किहि ठाहिं।॥ २ ॥ घट घट व्यापी सबमें वही, एक एक क्यों मारै सही ॥३॥ पाप पुन्य करवावै आप, वेद कहै क्यों सुमरन जाप ॥ ४ ॥ मारै दुष्ट सुष्ट प्रतिपाल, दुष्ट बनावै क्यों विकराल !॥ ५ ॥ जानै नहीं दुष्ट अज्ञान, ज्ञान बिना कैसें भगवान ॥६॥ राग न द्वेष न ज्ञायकरूप, 'द्यानत' दरपन ज्यों चिद्रूप॥७॥
हे मेरे मित्र! मुझे यह बताओ कि परमेश्वर की यह कैसी रीति है? माना जाता है कि वह संसार में जीवों को जन्म देता है, फिर वही उन्हें मारता है, इस प्रकार वह हत्यारा होता है !
जल में, स्थल में, अग्नि में या आकाश में, सारे संसार में वह किसी को छोटा बनाता है, किसी को बड़ा बनाता है (ऐसा क्यों?)!
माना जाता है कि वह संसार में घट-घट में, प्रत्येक देह में व्याप्त है, फिर वह एक-एक कर प्रत्येक को क्यों मारता है? (जिसमें वह स्वयं व्याप्त है उसे ही मारता है !) वह स्वयं ही पाप भी कराता है, पुण्य भी कराता है। फिर भी वेद कहते हैं कि उसका हो स्मरण करो, उसी का जाप करो।
संसार में दुष्ट लोग सज्जनों को मारते हैं, वह दुष्टों को उत्पत्रा ही क्यों करता है? उन्हें इतना भयावह क्यों बनाता है?
यदि वह दुष्ट को नहीं जानता तो यह उसका अज्ञान है तो ज्ञान बिना वह कैसा भगवान है?
धानतराय कहते हैं जिसके राग नहीं है, द्वेष नहीं है, जो मात्र ज्ञातास्वरूप है, दर्पणरूप, दर्पण के समान स्वच्छ व निर्मल चेतनरूप है वह ही भगवान है। सुष्ट = सज्जन।
धानत भजन सौरभ