________________
(१४२) वे परमादी! मैं आतमराम न जान्यो। टेक॥ जाको वेद पुरान बखानै, जानैं हैं स्यादवादी। वे.॥१॥ इंद फनिंद करें जिस पूजा, सो तुझमें अविषादी । वे. ॥२॥ 'धानत' साधु सकल जिंह ध्यावे, पार्वै समता-स्वादी॥वे.॥३।।
अरे प्रमादी जीव! तूने अपनी आत्मा को नहीं पहचाना, जाना। जिसका वर्णन वेद (आगम ग्रन्थ)-पुराण भी करते हैं। और जो स्यादवाद सिद्धान्त को जाननेवाले हैं वे भी उसे जानते हैं।
इन्द्र, धरणेन्द्र, जिसकी पूजा करते हैं, वह पूर्ण आनन्ददायक यानी सर्व विषादरहित आत्मा तुझमें भी है।
धानसराय कहते हैं कि सारे साथ जिस स्वरूप का ध्यान करते हैं, उस स्वरूप को समतारस के स्वादी ही प्राप्त करते हैं।
१६४
धानत भजन सौरभ