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राग गौरी सबको एक ही धरम सहाय॥टेक॥ सुर नर नारक तिरयक् गतिमें, पाप महा दुखदाय॥ सबको.॥ गज हरि दह अहि रण गट सारिधि, भूपति भीर पलारा! विधन उलटि आनन्द प्रगट है, दुलभ सुलभ ठहराय॥ सबको. ॥१॥ शुभते दूर बसत ढिग आवै, अघतें करते जाय। दुखिया धर्म करत दुख नास, सुखिया सुख अधिकाय ॥ सबको.॥२॥ ताड़न तापन छेदन कसना, कनकपरीच्छा भाय। 'द्यानत' देव धरम गुरु आगम, परखि गहो मनलाय॥सबको. ॥३॥
हे प्राणी ! एकमात्र धर्म ही सबका सहारा है। देव, तिर्यंच, नारकी व मनुष्य, इन चारों गतियों में पाप कर्म ही दुःख का, महादुःख का कारण है।
धर्म से ही हाथी, सिंह, अग्नि, सर्प, युद्ध, रोग, समुद्र और राजा आदि सभी के कष्टों का निवारण होता है और आनन्द प्रकट होता है ; जो दुर्लभ था वह भी सुलभ हो जाता है।
शुभ अर्थात् पुण्य जो दूर रहता था वह भी समीप आ जाता है और पापवृत्ति छूटती जाती है । इस प्रकार धर्म को अपनाकर दुखिया अपने दुःख का नाश करता है और सुखी के सुख की वृद्धि होती जाती है।
स्वर्ण को ताड़ना, तपाना, छेदा जाना, बौंधा जाना तथा कसौटी पर परखे जाने की भाँति सब प्रकार की परीक्षा करते हुए द्यानतराय कहते हैं कि देव, शास्त्र व गुरु को भी परखकर उनका निश्चय करो और फिर श्रद्धा से मन में धारण करो।
द्यानत भजन सौरभ
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