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(१८५) तुम प्रभु कहियत दीनदयाल ॥ टेक ॥ आपन आय मुकतमैं बैठे, हम जु रुलत जगजाल।। तुम.।। तुमरो नाम जपैं हम नीके, मन वच तीनौं काल । तुम तो हमको कछू देत नहिं, हमसे कौन हवाल॥ तुम. ॥१॥ बुरे भले हम भगत-तिहारे, जानत हो हम बाल।
और कछू नहिं यह चाहत हैं, राग दोषकौं टाल ॥ तुम. ॥ २ ॥ हमसौं चूक परी सो बकसो, तुम तो कृपाविशाल । 'धानत' एक बार प्रभु जगते, हमको लेहु निकाल ।। तुम. ॥ ३॥
हे प्रभु! आप दीन-निर्धनों पर करुणा करनेवाले अर्थात् दीनदयाल कहे जाते हो। आप तो मुक्त होकर मोक्षगामी हुए और वहाँ स्थित हो गए और हम इस जगतरूपी जाल में ही रुलते जा रहे हैं, भटकते जा रहे हैं।
हम मन-वचन से सुबह-दोपहर-शाम तीनों काल सदा आपका गुणगान करते हैं, नाम जपते हैं । पर तुम तो हमको कुछ देते नहीं हो, तो बताओ कि फिर हमारा रक्षक कौन है?
हम भले हों अथवा बुरे, हम तो आपके भक्त हैं । आप हमारा आचरण-चाल, रंग-ढंग जानते व समझते हैं । हम आपसे कुछ भी याचना नहीं करते । मात्र इतना ही चाहते हैं कि आप हमें राग व द्वेष से मुक्त कीजिए, उनसे बचाइए।
हमारी जो भी कोई भूल-चूक हुई हो, आप उसे क्षमा करें। आप तो दया के सागर हैं, महादयालु हैं । धानतराय कहते हैं कि हमको मात्र एकबार आप इस जगत से बाहर निकाल दें।
बकसो ( बख्शना) = माफ करो, क्षमा करो।।
द्यानत भजन सौरभ
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