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(१९१) दास तिहारो हूं, मोहि तारो श्रीजिनराय। दास तिहारो भक्त तिहारो, तारो श्रीजिनराय॥टेक ।। चहुँगति दुखकी आगरौं अब, लीजे भक्त बचाय॥ दास.॥१॥ विषय कषाय ठगनि ठग्यो, दोनोंर्ते लेहु छुड़ाय ।। दास. ॥ २॥ 'द्यानत' ममता नाहरी , तुम बिन कौन उपाय ।। दास.॥३॥
__ हे जिनराज ! मैं आपका दास हूँ, सेवक हूँ, अनुयायी हूँ। मुझको तारिए - भवसागर के पार लगाइए। मैं आपका भक्त हूँ, मुझे तारिए। चारों गतियों की दुःखरूपी आग से अपने इस भक्त को बचा लीजिए।
इन्द्रिय विषय और कषायों ने बाहर व अन्तर में मुझे ठग बनकर ठग लिया है, मुझे इन दोनों से बचा लीजिए। द्यानतराय कहते हैं कि यह मोह-ममतारूपी व्याध्रिनी से अपने आपको बचाने के लिए आपके अलावा अन्य कौन सा उपाय है? अर्थात् कोई उपाय नहीं है।
द्यानत भजन सौरभ