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.... राग काफ़ा..A MR: . . जिनसमग्रमी मेरा, मैं सेवक प्रभु हों तेरामटेक॥ .. .. तुम सुमरन बिन मैं बहु कीना, नाना जोनि बसेरा। भाग उदय तुम दरसन पायो, पाप भज्यो तजि खेरा ।। तू जिनवर.॥१॥ तुम देवाधिदेव परमेसुर, दीजै दान सबेरा। जो तुम मोख देत नहिं हालो, कहाँ जाएँ दिहि बेरः ''जूनिगवा ॥२॥ मात तात तूही बड़ भ्राता, तोसौं प्रेम घनेरा। 'द्यानत' तार निकार जगत , फेर न कै भवफेरा ॥तू जिनवर.॥३॥
हे जिन श्रेष्ठ। आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका सेवक हूँ।
आपका स्मरण नहीं करने के कारण मैंने अनेक स्थानों पर अनेक योनियों में अपना बसेरा किया, घर बनाकर ठहरा अर्थात् अनेक भव धारण करता रहा। अब भाग्य-उदय से मुझे आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिसमें पाप अपना स्थान छोड़कर पलायमान हो रहे, भाग रहे हैं।।
आप देवों के देव हैं, परमेश्वर हैं आप ज्ञान (के प्रकाश) का दान दीजिए। हम याचकों को यदि आप मुक्ति-लाभ प्रदान नहीं करते, तो हम कहाँ जायें, हमारे लिए अन्यत्र कहाँ स्थान है?
हे देव ! तू ही मेरा माता-पिता, बड़ा भाई, हितैषी है । अब तू मुझे इस संसार से बाहर निकाल दे, तिरा दे ताकि फिर संसार में आना बन्द हो जावे, मिट जावे, भव-भ्रमण की क्रिया सदा के लिए समाप्त हो जावे ।
हों = मैं; खेर -+ खेड़ा - गाँव, स्थान ।
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घानत भजन सौरभ