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(१७९) जिन साहिब मेरे हो, निबाहिये दासको ॥ टेक॥ मोह महातम घेर भर्यो है, कीजिये ज्ञान प्रकासको ॥ जिन.॥१॥ लोभरोगके वैद प्रभूजी, औषध द्यो गद नासको॥जिन, ॥ २ ।। 'द्यानत' क्रोध की आग बुझावो, बरस छिमा जलरासको॥जिन.॥३॥
" हे श्रोजन। आप मेरे स्वामी हैं, आप इस दास का निर्वाह कीजिए, मुझे निवाहिए अर्थात् मुझे संसार-दुख से मुक्त कीजिए।
मोहरूपी घना अंधकार चारों ओर छाया हुआ है, भरा हुआ है, उस अंधकार को हटाने के लिए ज्ञान का प्रकाश कीजिए।
आप लोभ अर्थात् तृष्णारूपी रोग को दूर करने के लिए परम कुशल वैद्य हो। उस रोग से मुक्त करने के लिए, रोग का नाश करने के लिए आप कुछ औषध दीजिए।
द्यानतराय कहते हैं कि क्रोध की अग्नि धू-धू करके जल रही है, लपटें उगल रही हैं । उस क्रोध को शान्त/शमन करने के लिए उस पर क्षमारूप जल की वर्षा कीजिए अर्थात् मैं उत्तम क्षमा का धारक बन जाऊँ ऐसी शक्ति दीजिए।
गद : रोग।
धानत भजन सौरभ