________________
(१७७) जिनरायके पाय सदा शरनं ।। टेक ।। भव जल पतित निकारन कारन, अन्तरपापतिमिर हरनं। जिन. ॥१॥ परसी भूमि भई तीरथ सो, देव-मुकुट-मनि-छवि धरनं । जिन. ॥ २॥ 'द्यानत' प्रभु-पद-रज कब पावै, लागत भागत है मरनं। जिन.॥३॥
श्री जिनराज के पादपद्म की/चरण-कमल की मुझे सदा शरण हैं।
वे इस भवरूपी समुद्र से पापियों को बाहर निकालने व अंत:स्थल के पापरूपी अंधकार का विनाश करने के लिए कारण हैं।
जहाँ-जहाँ उनके चरणों का स्पर्श हुआ वह भूमि उनके स्पर्श से तीर्थ बन गई और वह भूमि देवों की मुकटों की मणियों की आभा से व्याप्त हो गई अर्थात् वह भूमि देशों ना वंदनीय हो गई। . . . . . . . . . .
द्यानतराय कहते हैं कि कब प्रभु के चरणों की रज- धूलि का स्पर्श हो अर्थात् प्राप्ति हो जिससे मृत्यु का भय अविलम्ब पलायन हो जाए अर्थात् प्रभु की सन्निधि मिल जाने पर मृत्यु की श्रृंखला भंग हो जाती है, टूट जाती है।
यानत भजन सौरभ
२०७