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राग धनासरी जैन नाम भज भाई रे!।। टेक॥ जा दिन तेरा कोई नाहीं, ता दिन नाम सहाई रे॥ जैन.॥ अगनि नीर है शत्रु वीर है, महिमा होत सवाई। दारिद जावै धन बहु आवै, जा मन नाम दुहाई रे। जैन.॥१॥ सोई साध सन्त सोई धन, जिन प्रभुसों लौ लाई। सोई जती सती सो ताकी, उत्तम जात कहाई रे। जैन.॥२॥ जीव अनेक तरे सुमरनसों, गिनती गनिय न जाई। सोई नाम जपो नित 'द्यानत', तजि विकथा दुखदाई रे॥जैन.॥३॥
अरे भाई। जीत लिया है मामलो कषाा और विषयों को जिनहे ला निन्जैन के नाम का सदा सुमिरन करो, भजो । जिस दिन तुझे ऐसा प्रतीत हो कि इस संसार में तेरा कोई भी अपना नहीं है, उस दिन यह नाम ही तेरा सहायक हो जायेगा।
जिसके मन में इस नाम का सहारा है उसके प्रति अग्नि-जलरूप और शत्रु भाई-रूप हो जाता है, उसकी महिमा बढ़ जाती है, सवागुणी हो जाती है । जिसके मन में इस नाम का सहारा है उसकी दरिद्रता का नाश होकर बहुत धन की प्राप्ति होती है।
उस ही की साधना सफल है, वह ही सन्त है, वह ही धन्य है जो ऐसे प्रभु की भक्ति में लौ लगाते हैं, मन लगाते हैं, और वे ही उत्तम श्रेणी के कहलाते हैं । वे ही जती हैं और वे ही सती नाम से जानी जाती हैं, कहलाती हैं ।
उन जिनेन्द्र के सुमिरन से अगणित जीव, जिनकी गिनती ही नहीं की जा सकती, इस संसार से पार हो गए हैं, तिर गए हैं। द्यानतराय कहते हैं कि दु:खदायी सारी विकथाएँ छोड़कर उन जिनेन्द्र का नाम नित जपो।
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द्यानत भजन सौरभ