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(१८१) जिनके हिरदै भगवान बसैं, तिन आनका ध्यान किया न किया। टेक ॥ चनी एक मिलाप भयेर्ते, गायन मिनिया मिलिमा सिके. . . . इक चिन्तामणि वांछितदायक, और नग न गहिया गहिया । पारस एक कनी कर आवै, और धन न लहिया लहिया ॥१॥ एक भान दश दिशि उजियारा, और ग्रह न उदिया उदिया। एक कल्पतरु सब सुखदाता, और तरु न उगिया उगिया ॥ २ ॥ एक अभय महा दान देयके, और सुदान दिया न दिया। 'द्यानत' ज्ञानसुधारस चाख्यो, अम्रत और पिया न पिया ॥३॥
हे ज्ञानी! जिसके हृदय आसन पर, जिनके मन में भगवान की छवि आसीन है वह अन्य देवों का ध्यान करे अथवा न करे कोई बात नहीं अर्थात् क्यों करें? यदि एक चक्रवर्ती से मेल हो जाए तो अन्य जनों से मेल-मिलाप हो या न हो, सब प्रयोजनहीन है।
यदि वांछित फल देनेवाला एक चिंतामणि रत्न प्राप्त हो जाए तो अन्य रल मिले, उसका कोई मूल्य नहीं है । पारस पत्थर का एक टुकड़ा भी हाथ आ जावे तो अन्य धन सुलभ होने पर भी निरुपयोगी है, अर्थहीन है।
एक अकेला सूर्य दश-दिशाओं को प्रकाशित करनेवाला है, जब वह उदित है तब और ग्रहों का उदय हो या न हो, कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसी प्रकार सर्वसुख और संपति का दाता एक कल्पवृक्ष हो तो अन्य वृक्ष उगे अथवा नहीं, कोई अर्थवान नहीं है। । यदि किसी को भयरहित जीवन प्रदानकर अभयदान कर दिया तो और किसी प्रकार का दान किया या नहीं यह बेमाने हैं । द्यानतराय कहते हैं कि जिसने ज्ञानरूपी अमृत का स्वाद चख लिया उसने अन्य अमृत पिया या नहीं यह सारवान नहीं है।
नग - रत्नः कणी - छोटा सा टुकड़ा; भान (भानु) - सूर्य।
द्यानत भजन सौरभ