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राग विलावल जिन नाम सुमर मन! बावरे! कहा इत उत भटके ।। टेक॥ विषय प्रगट विष-बेल हैं, इनमें जिन अटकै॥ जिन नाम.॥ दुर्लभ नरभव पायक, नगसों मत पटकै। फिर पीछे पछतायगो, औसर जब सटकै । जिन नाम. ॥१॥ एक घरी है सफल जो, प्रभु-गुन-रस गटकै। कोटि वरष जीयो वृथा, जो थोथा फटकै। जिन नाम.॥२॥ 'द्यानत' उत्तम भजन है, लीजै मन रटकै। भव भवके पातक सबै, जै हैं तो कटकै। जिन नाम. ॥३॥
अरे बावरे मन! तू श्री जिन के नाम का स्मरण कर, व्यर्थ ही तू क्यों इधरउधर भटक रहा है? अरे जिन विषयों में तू अटक रहा है, जिनकी ओर ललचा रहा है वे तो प्रत्यक्ष में, स्पष्टता ही विष की बेल हैं।
यह मनुष्य भव अत्यन्त दुर्लभ है, जो तुझको प्राप्त हुआ है। तू इस रल को पर्वत से नीचे मत पटके अर्थात् व्यर्थ मत खो, वरना यह अवसर जब निकल जायेगा तब तु फिर पछताता रहेगा। ___ अरे वह ही एक घड़ी, एक क्षण सफल है जिस क्षण तू प्रभु नाम के रस को पीता है, प्रभु-नाम के रस का आस्वादन करता है। अन्यथा चाहे तू करोड़ों वर्षों तक बिना किसी अर्थ के जीवन जी, सब बेकार है, निष्फल है।
द्यानतराय कहते हैं कि सबसे उत्तम तो जिनेन्द्र का भजन है, जिनेन्द्र का गुणस्तवन है, उसे मन लगाकर कंठस्थ कर लो तो भव-भवान्तर के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, क्षीण हो जाते हैं, झड़ जाते हैं।
सटकै - बीत जाना।
द्यानत भजन सौरभ
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