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(१४४) सब जगको प्यारा, चेतनरूप निहारा ।। टेक॥ दरब भाव नो करम न मेरे, पुदगल दरब पसारा॥सब.।। चार कषाय चार गति संज्ञा, बंध चार परकारा। पंच वान रस पंच देह अरु, पंच भेद संसारा॥सब, ॥१॥ छहों दरब छह काल छलेश्या, छमत भेदतें पारा। परिगृह मारगना गुन-थानक, जीवथानसों न्यारा ॥ सब.॥२॥ दरसनज्ञानचरनगुनमण्डित, ज्ञायक चिह्न हमारा। सोऽहं सोऽहं और सु और, 'धानत' निहचै धारा ।। सब.॥३॥
हे साधो ! अपने चैतन्यरूप को निहारना, देखना ही सारे जगत को प्रिय है। द्रव्य कर्म व नो कर्म, ये मुझ चैतन्य के नहीं है । ये तो सब पुद्गल का ही विस्तार है, प्रसार है। ___ चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ); चार गति ( देव, नारक, मनुष्य
और तिर्यंच); चार संज्ञा (आहार, भय, मैथुन और परिग्रह); चार प्रकार के बंध (प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग); पाँच वर्ण (हरा, नीला, काला, पीला और सफेद); पाँच रस (खट्टा, मीठा, चरपरा, कषायला और कडुआ); पाँच देह (औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, कार्माण और तेजस) व पंच परावर्तनरूप स्थितियाँ (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव) संसार ही है।
यह चेतन द्रव्य अन्य पाँचों द्रव्यों (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल), छह काल (सुखमा-सुखमा, सुखमा, सुखमा-दुखमा, दुखमा-सुखमा, दुखमा, दुखमा -दुखमा), छह लेश्या और छह प्रकार के मतों से परे है तथा सब परिग्रहों, चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान, चौदह जीवस्थान इन सबसे न्यारा है।
दर्शन, ज्ञान, चारित्र के गुणों से भरा हुआ, यह जाननेवाला/ज्ञायक होना ही हमारा चिह्न है । सोऽहं, सोऽहं अर्थात् मैं वह (सिद्धाशुद्धरूप) हूँ, इसी को ध्याचे व चिन्तन में लावे, यह ही निश्चय का मार्ग है, प्रवाह है।
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धानत भजन सौरभ