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(११८) प्राणी! सोऽहं सोऽहं ध्याय हो । टेक॥ वाती दीप परस दीपक है, बूंद जु उदधि कहाय हो। तैसें परमातम ध्यावै सो, परमातम है जाय हो । प्रuit.li ki
और सकल कारज है थोथो, तोहि महा दुखदाय हो। 'द्यानत' यही ध्यानहित कीजे, हूजे त्रिभुवनराय हो। प्राणी.॥२॥
हे प्राणी ! आत्मा का जो सिद्ध/शुद्ध रूप है मैं वह सिद्धाशुद्धरूप हूँ, वह मैं हूं - इसी तथ्य का निरन्तर ध्यान करो। दीपक के स्पर्श से/संसर्ग में बाती भी दीपक कहलाने लगती है। जैसे एक-एक बूंद समुद्र की घटक है, वह एक बूंद भी समुद्र का एक अंश है - समुद्र है । समुद्र के साथ रहने से पानी की एक बूंद भी समुद्र कहलाती है। वैसे ही परमात्मा का ध्यान करनेवाले प्राणी ध्यान करतेकरते परमात्मस्वरूप हो जाते हैं। __ इसके अतिरिक्त सभी कार्य निरर्थक हैं और दुःखों के देनेवाले हैं, दुःखों का सृजन करनेवाले हैं। धानतराय कहते हैं कि तुम अपने आत्मस्वरूप का ध्यान करो, यही हितकारी है, इससे हो तुम स्वयं तीन लोक के स्वामी हो जाओगे।
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घानत भजन सौरभ