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( १३८ ) राग गौरी
रे भाई ! सँभाल जगजालमें काल दरहाल रे ॥ टेक ॥
कोड़ जोधाको जीतै छिनमें, एकलो एक हि सूर । कोड़ सूर अस धूर कर डारे, जमकी भौंह करूर ॥ रे भाई. ॥ १ ॥
लोहमें कोट सौ कोट बनाओ, सिंह रखो चहुँओर ।
इंद दि नरिंद्र जौकि टैं नहिं छोड़े, सुतु जोर ॥ रे भाई ॥ २ ॥
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शैल जलै उस आग वलै सो, क्यों छोड़े दिन सोय |
देव सबै इक काल भखै है,
नरमें क्या बल होय ।। रे भाई. ॥ ३ ॥
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देहधारी भये भूपर जे जे ते खाये सब मौत । 'द्यानतराय' धर्म को धार चलो शिव, मौतको करके फौत ॥ रे भाई ।। ४ ।।
अरे भाई ! इस जगत के जाल में तू अपने को सँभाल | काल अर्थात् मृत्यु सदैव तेरे दरवाजे पर खड़ी हैं।
कोई एक अकेला ही इतना वीर हैं कि करोड़ों योद्धाओं को जीत लेता है, करोड़ों को धूलि मिट्टी कर देता है किन्तु उसको भी यम की क्रूर दृष्टि नष्ट कर देती है ।
लोहे के सौ-सौ परकोटे बनाओ और उनकी रक्षा के लिए चारों ओर रक्षक बोद्धा रखो; चाहे इन्द्र हो, फणीन्द्र हो या नृप आदि चौकीदारी करें तो भी मृत्यु किसी को छोड़ती नहीं है। उस मृत्यु पर किसी का जोर नहीं चलता ।
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जैसे अग्नि की पहाड़ सी ऊँची उठती भयानक लपटों में कुछ भी नहीं बचता उसी प्रकार यह काल सबको खा जाता है, लील जाता है उसके सामने इस मनुष्य में कितना सा बल है !
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इस पृथ्वी पर जितने भी प्राणी हैं वे सब देह धारण किए हुए हैं, सदेह हैं, उन सभी को यह मौत खा जाती है। द्यानतराय कहते हैं कि तुम मोक्ष की प्राप्ति के लिए धर्म की राह पर चलो जिससे मृत्यु - श्रृंखला का अंत कर सको।
द्यानत भजन सौरभ